Monday, August 29, 2011

पूना पैक्‍ट

पूना पैक्ट

1-लेखक-माता प्रसाद, पूर्व राज्यपाल

स्वतंत्र भारत के पूर्व, स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने के लिए ब्रिटेन की सरकार ने, भारत के सभी राजनैतिक दलों, नवाबों के प्रतिनिधियों और कुछ निर्दलीय बुद्धिजीवियों की एक गोल मेज कोंफ्रेंस लंदन में बुलाई जिसमें दलित प्रतिनिधि के रूप में डॉ.बी.आर. आंबेडकर और राय साहब श्री निवासन भी आमंत्रित थे। निर्दलियों से सर, तेज बहादुर सप्रु० और सी० वाई चिन्तामणि भी उसमें सम्मिलित थे। इसकी पहली बैठक १२ नवम्बर १९३० ई० से १८ जनवरी १९३१ ई० तक तथा दूसरी बैठक ०७ सितम्बर १९३१ से ०९ दिसम्बर १९३१ ई० तक लंदन में चली। जिसकी अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने की थी। इन बैठकों में डॉ. अम्बेडकर ने भारत में दलितों की दुर्दशा बताते हुए उनकी सामाजिक, राजनीतिक स्थिति में सुधार के लिए दलितों के लिए "पृथक निर्वाचन" की मांग रखी। पृथक निर्वाचन में दलितों को दो मत देना होता जिसमें एक मत दलित मतदाता, केवल दलित उम्मीदवार को देते और दूसरा मत वे जनरल कास्ट के उम्मीदवार को। महात्मा गाँधी ने डॉ. अम्बेडकर के पृथक निर्वाचन की इस मांग का विरोध किया । दोनों कांफ्रेंसों में सर्वसम्मति से निर्णय न होने पर सभी ने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री पर इसका निर्णय लेने की जिम्मेदारी छोड़ दिया और कांफ्रेंस ख़त्म हो गयी।


ब्रिटिश प्रधानमंत्री सर रैमजे मैकानाल्ड ने १७ अगस्त १९३२ ई० को कम्युनल एवार्ड की घोषणा की उसमें दलितों के पृथक निर्वाचन की मांग को स्वीकार कर लिया था। जब गांधी जी को इसकी सूचना मिली, तो उन्होंने इसका विरोध किया और २० सितम्बर १९३२ ई ० को इसके विरोध में यरवदा जेल में आमरण अनशन करने की घोषणा कर दी। महात्मा गाँधी जहां पृथक निर्वाचन के विरोध में अनशन कर रहे थे वही पर डॉ० अम्बेडकर के समर्थक पृथक निर्वाचान के पक्ष में खुशियाँ मना रहे थे इसलिए दोनों समर्थकों में झड़पें होने लगी। तीसरे दिन गाँधी जी की दशा बिगड़ने लगी तब डॉ.अम्बेडकर पर दबाव बढ़ा कि वह अपनी पृथक निर्वाचन की मांग को वापस ले लें किन्तु उन्होंने अपनी मांग वापस न लेने को कहा। उधर गाँधी जी भी अपने अनशन पर अड़े रहे। इन दोनों के बीच सर तेज बहादुर सप्रू बात करके कोई बीच का रास्ता निकालने का प्रयास कर रहे थे। २४ सितम्बर १९३२ ई० को सर तेज बहादुर सप्रू ने दोनों से मिलकर एक समझौता तैयार किया जिसमें डॉ.आंबेडकर को पृथक निर्वाचन की मांग को वापस लेना था और गाँधी जी के दलितों को केन्द्रीय और राज्यों की विधान सभाओं एवं स्थानीय संस्थाओं में दलितों की जनसंख्या के अनुसार प्रतिनिधित्व देना एवं सरकारी नौकरियों में भी प्रतिनिधित्व देना था। इसके अलावा शैक्षिक संस्थाओं में दलितों को विशेष सुविधाएं देना भी था। दोनों नेता इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ को इस समझौते पर सहमत हो गये। २४ सितम्बर १९३२ ई० को इस समझौते पर गाँधी जी और डॉ. अम्बेडकर ने तथा इनके सभी समर्थकों ने अपने हस्ताक्षर कर दिए। इस समझौते को "पूना पैक्ट" कहा गया।
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2-यह घटना है सितंबर, 1932 में पूना पैक्‍ट की। जब ब्रिटिश सरकार पूरी तरह तय कर चुकी थी कि 'कम्‍यूनल अवार्ड' के तहत अस्‍पृश्‍य जातियों को अल्‍पसंख्‍यकों और अन्‍य समुदायों की तरह अलग से संविधान में पृथक निर्वाचन की व्‍यवस्‍था की जाएगी तब महात्‍मा गांधी ने इसे भारत की एकता को खंडित करने वाला कदम बता कर यरवदा जेल में 20 सितंबर, 1932 को आमरण अनशन शुरु कर दिया था। गांधी जी की तबियत इस अनशन से बहुत तेजी से खराब होने लगी थी। डॉ. अंबेडकर जानते थे कि अगर इस अनशन से गांधी जी की मृत्‍यु हो जाती है तो देश भर के सवर्ण अछूतों का नरसंहार कर देंगे। इसलिए बेहद मानसिक दबाव और तनाव में डॉ. अंबेडकर ने गांधी जी के साथ 24 सितंबर, 1932 को यरवदा जेल में पूना पैक्‍ट किया था। इस समझौते के तहत पृथक निर्वाचन के बजाय दलितों के लिए अलग से सीटें आरक्षित करने और नौकरियों में भी आरक्षण का प्रावधान था। इस पैक्‍ट को लेकर बहुत विवाद हैं, दलितों के एक तबके का मानना है कि डॉ. अंबेडकर को गांधी जी के आगे नहीं झुकना चाहिए था। लेकिन भारतीय समाज के इतिहास में यह बहुत बड़ी ऐतिहासिक घटना है जो दर्शाती है कि बहुसंख्‍यक समाज को हर दौर में अपने ही हितों की कुर्बानी देनी पड़ती है फिर वो चाहे देश का मामला हो या भाषा का। कल्‍पना कीजिए कि अगर दलितों के आत्‍म निर्णय और पृथक निर्वाचन को कानूनी दर्जा मिल जाता तो क्‍या होता?
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3-सितम्बर का एक काला दिन! (पूना पैक्ट) 
(25.09.10)

सितम्बर के महीने का भारत के दलित, पिछड़े समुदाय की वैचारिक जागृति के नजरिये से बहुत बड़ा महत्व है।

सबसे बड़ी घटना तो अम्बेडकर और हिंदू नेताओं के बीच पूना समझौते की है। वैसे यह हैरानी की बात है कि इस देश के समाज और संस्कृति के लिए अत्यन्त दुखद पूना पैक्ट को लेकर भारतीय इतिहासकारों के बीच एक खामोशी बनी रही है। इसी महीने की 17 तारीख को ई.वी. रामास्वामी नायकर पेरियार का जन्म हुआ था। दलित पिछड़े समुदाय के आत्मसम्मान की सबसे बड़ी लड़ाई की शुरुआत थी यह घटना।

हमें यह जानना चाहिए कि पेरियार वैज्ञानिक समझ और तार्किकता की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण वैचारिकी के प्रतीक थे। यूरोप के बुद्धिजीवी जिस तार्किकता और विज्ञान बोध के चलते नई से नई वैज्ञानिक उपलब्धियां प्राप्त कर रहे थे, उसके भारत में सबसे बड़े प्रतिनिधि पेरियार ही थे।

देश के इतिहास का यह विचित्र दुर्भाग्य है कि पेरियार एक बड़े और तार्किक चिन्तन के कारण उत्तर भारत और दक्षिण को छोड़कर अन्य भागों में क्षोभ के साथ खारिज किए जाते रहे। उनकी पुस्तकों के जो हिंदी अनुवाद हुए उन पर उत्तर प्रदेश की सरकार ने ही प्रतिबंध लगा दिया था। यह अलग बात है कि पेरियार की पुस्तकों का हिंदी अनुवाद करने वाले ललई सिंह यादव ने बाद में मुकदमा जीता और प्रतिबंध हटा। यह जरूर आश्चर्य की बात है कि दिल्ली की एक लोकप्रिय, गैर साहित्यिक पत्रिका लगातार पेरियार के विचारों को प्रकाशित करती रही थी।

लेकिन सितम्बर माह की घटना पूना पैक्ट को लेकर जहां समूचा इतिहास खामोश है वहीं इसी मुद्दे पर भगत सिंह के विचार हैरान करने वाले हैं। भगत सिंह भारतीय इतिहास में जातिवादी भेदभाव के प्रति अत्यन्त संवेदनशील थे। भगत सिंह ने 1928 में अपने एक लेख में लिखा था- हम तो यह समझते हैं कि उनका स्वयं को संगठनबद्ध करना और मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की मांग करना बहुत आशाजनक संकेत है। या तो साम्प्रदायिक भेदभाव का झंझट ही खत्म करो नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो।

इस लेख से लगभग छह महीने पहले डॉ. अम्बेडकर ने महाड़ में मनुस्मृति की होली जलाई थी। पहली बार साइमन कमीशन 13 फरवरी 1928 में भारत आया था। इसी साइमन कमीशन ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा की थी। इस कम्युनल एवार्ड के जरिये दलितों को हिंदुओं से अलग राष्ट्रीयता और अपने प्रतिनिधि को अलग निर्वाचित करने का अधिकार मिलता था। हिंदू समुदाय को यह तो स्वीकार था कि मुसलमानों और सिखों को अपना अलग प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दे दिया जाए पर वह दलितों को यह अधिकार नहीं देना चाहता था।

यह समुदाय साइमन कमीशन के कम्युनल अवार्ड का गहरा विरोध इसलिए करता था कि इस अवार्ड के बाद हिन्दू अल्पसंख्यक हो जाता। डॉ. अम्बेडकर ने इसी साइमन कमीशन के सामने अपने बयान में कहा था- 'सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहता हूं कि हमको हिंदू समाज से अलग अल्पसंख्यक माना जाए। आशय यह है कि हमें स्वतंत्र अल्पसंख्यक वर्ग माना जाए। 

दूसरे मेरा कहना यह है कि दलित अल्पसंख्यक वर्ग के लिए ब्रिाटिश भारत में किसी भी अल्पसंख्यक वर्ग की अपेक्षा अधिकाधिक राजनीतिक सुरक्षा की जरूरत है। इसका कारण यह है कि दलित शिक्षा की दृष्टि से सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं, आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक निर्धन हैं, सामाजिक दृष्टि से सर्वाधिक गुलाम हैं और राजनीतिक दृष्टि से ये लोग सर्वाधिक पीड़ित और अशक्त हैं।'

निश्चय ही अगर दलित उस वक्त हिंदुओं से अलग संप्रदाय बन गए होते तो उनकी सामाजिक स्थिति में बुनियादी परिवर्तन आ चुका होता। भगत सिंह ने दलित समस्या को अम्बेडकर की नजर से ही देखा था तभी उन्होंने लिखा था-'या तो साम्प्रदायिक भेद मिटाओ या फिर उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो।'

यह हैरानी की बात है कि बेहद अल्पायु में भगत सिंह कम्युनल अवार्ड की बुनियाद समझ गये थे जबकि देश के क्रांतिकारी इस समझ से दूर ही रहे थे। निस्संदेह जहां इतिहास पूना पैक्ट भूला हुआ है, वहीं बामसेफ सहित अन्य दलितों, पिछड़ों के संगठन इस दिन को आज भी 'काला दिवस' मानते और मनाते हैं। स्त्रोत : समय लाइव 

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